Thursday, February 16, 2012

नयी उड़ान


संकरी  सी  वो  गली
जिसमे  गिरते  पड़ते  मैं  चला
दीवारों  के  बीच
रौशनी से दूर
ठोकर  खाते  बढ़ता  चला

इक  मोड़  आया
और  रौशनी  से  मुलाक़ात  हुई
रस्ता  हुआ  विराट
और  मन  से  कुछ  बात  हुई

वो  दृश्य  था  अनूठा
न  कभी  देखा  न  सुना
रौशनी  की  चकाचौंध  में
हर  एक  मंज़र  ऐसा  बुना  था

बढ़  चला  मैं  आगे
पर  अपने  पैरों पर  नहीं
ना  जाने  वो  पंख  कहाँ  से  लगे
दूरों  तक  कोई  डगर  नहीं

आसमां  में  उड़  चला
उड़ता  चला  बेफिक्र
क्या  छोड़  आया  अपने  पीछे
करूं  क्या  अब  जिक्र

मैं  न  था  अकेला  उस  आसमां  में
और  भी  थे  उड़ते  हुए
उड़  पड़ा  उनके  ही  संग
लगातार  बढ़ते  हुए

फिर  अचानक  एक  आंधी  आई
पंख  मेरे  उड़  गए
क्या  पता  हुआ  उनका  क्या
हाथ  मेरे  जुड़  गए

आ  गिरा  वापिस  इस  ज़मीन  पर

जब  आँख  खुली
पाया  उनको  अपने  पास
जिनके  पर  कट  गए  थे
अरे  जो  अपने  से  थे
कहीं  दूर  गुम  हो  गए  थे
मैं  उस  गली  से  जब  बाहर  आया  था
तो  वो  पीछे  ही  छूट  गए  थे

क्या  हुआ  था  उनका
यह  मुझे  नहीं  मालूम
पर  वो  आज  मेरे  साथ  हैं
क्यूँ  डरूं  के  पंख मेरे  कट  गए
वो  आज  मेरे  साथ  हैं

फिर  आयेंगे  मौके  कई
वैसी  उड़ान  भरने  के
पर  मैं  आज  उस  गली  से  न  निकलूंगा
नए  पर  लगाने
जो  था  मैंने  उस  उड़ान  में  खो  दिया
आज  वो  मेरे  साथ  हैं

दूर  मोड़  पर  रौशनी  है
और  हाथों  में  हाथ

देख  लेंगे  इस  जमाने  को
वोह  आज  मेरे  साथ  हैं

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