Wednesday, February 18, 2009

सफर

नही है आग राह की
कहाँ गई क्यूँ हुआ
यह मन हुआ विरक्त सा
गायब कहाँ जुनूं हुआ

समर्थ मन डरा हुआ
है आज क्यूँ थका हुआ
आशाओं के द्वंद से
भयभीत सा मरा हुआ

प्रकृति के प्रताप में
है हौसला थका हुआ
प्यार के आवेश में
सना हुआ पका हुआ


जले हुए दरख्त सा
अरमानो तले दबा हुआ
मोह माया प्रेमजाल
पकड़ा हुआ खड़ा हुआ

प्यार के आगाज़ से
बना हुआ मापा हुआ
उन्ही के मापतोल में
निरंतर लगा रहा

कुंठा भरी समाज से
जुड़ा रहा बना रहा
है वक्त आज शोर का
खड़ा कहाँ तत्पर हुआ

नही कभी यकीं कर
कौन है कहाँ गया
आज वक्त आ रहा
तू सूर्य है प्रकट हुआ

समाज तो कुटिल रहा
सदा यहाँ यहीं रहा
तू पथिक है राम का
आज से संवर रहा !

उड़ चला मैं

उड़ चला मैं
उमंग थी पर लगाने की
चाह थी कुछ कर गुज़र जाने की
ऐसी कुछ उड़ानों की कसक लिए
उड़ चला मैं

दूर कहीं वो बैठी होगी
अन्जान इन पथ की कठिनाईयों से
आज ऐसी टीस उठी है दिल में
कि मिल आऊँ उससे क्षण भर को
सो उड़ चला मैं

इस जीवन में उद्देश्य कई थे
संचय करता अरमानो का
अज्ञात दिशा की उमंग लिए
उस हीरे की प्यास लिए
उड़ चला मैं

दूर कहीं है चलना
बाधाओं के परिपक्व होने से पहले
काश उसकी सूरत का दीदार हो
उस खुदा से पहले
अरमानो के भूचाल लिए
उड़ चला मैं

क्या वो करती होगी मेरा इंतज़ार
क्या होगा उसे मुझ जैसा प्यार
इन दुविधाओं की गाँठ लिए
उड़ चला मैं

अभी मीलों का सफर है तय करना
इस काया की मंशा में है और लौह भरना
परिणामों की चिंता से अनभिज्ञ
उड़ चला मैं

हाथ लिए अरमानो की वरमाला
कर निश्चय पीने हलाहल प्याला
आज उठा मैं गहराई की धरातल से
पंख लगा आशाओं के
उड़ चला मैं