चार दिन सम्मान के जी सकूं तो फक्र है
गीत खुद के गा सकूं पी सकूं तो फक्र है
रास्ते के मुश्किलों से लड़ सकूं तो फक्र है
हार कर भी जीत लूं ये कर सकूं तो फक्र है
चाह की किलकारियां मैं संजोता कब तक फिरूं
आशाओं का आइना लेकर मैं कब तक गिरूँ
अब आये विघ्न कुछ भी ठान ये मैं अब बढूँ
चाह की उस तीस का मैं ऐसा कुछ कर सकूं
आन जाए शान जाए या अनूठा जिक्र हो
मायावी संवेदनाओं की क्यूँ मुझे अब फिक्र हो
अबके ना पीछे हटूंगा हार को ना अब सहूँगा
मर के भी जो रह गया तो इस जीवन को फक्र है
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